एक बूँद

Rajee Ba

एक बूँद

कविता सारांश
ये है मई जून की कविता
जब सारा जंगल तपता
प्यास बढ़ाता प्यार बढ़ाता
अपनों को फिर दूर कराता ।।
जब ढूंढे सब पोखर सरिता
ये है मई जून की कविता ।।
आती तब बन अमृत वर्षा
बून्द वही जो बून्द यँही
आती थी पिछली वर्षा ।।
कविता
उम्र से लम्बे दिन
तपती हुई धरती
मैला होता आसमा
रत की बेखबर चांदनी
बून्द दर बून्द ,बून्द हर बून्द
नदी तालाब को छोटा करती
पेड़ो का तिलमिलाना
सूखे जंगल की आग ।।
प्यासी हथनी का बच्चें को लिए
पानी की तलाश में
मीलो का सफर करना
फिर थक हर कर रात गुजारना ।।
जलती धुप में सूखती छिपकली
का दिन भर का इंतज़ार
आशा की रात में
शायद हो सके कुछ शिकार ।।
वंही बूँद दर बूँद उड़ती रही
आसमा में इकठे होने के लिए
करती रही छोटे नदी और तालाब
देती रही प्यास और बस प्यास ।।
कुछ चलते रहे प्यासे कि
शायद कभी तो मिल सके एक बून्द
ठहरी हुई किसी नदी या तालाब
कुछ करते रहे इंतज़ार
और देखते रहे आसमा में
तैरते हुए कुछ अब्र के टुकड़े
सुखी घास को को चबा चबा
तलाशती रही एक बून्द हिरणी
अपने छोने ( बच्चे) का
एक टूक माँ को देखना
परेशा करता रहा फिर उसे ।।
पर बून्द का उड़ना
फिर उड़ना जारी रहा।।
आखिर रंग लाया उस बून्द का
अथक प्रयास
अपने ही बोझ से झुकने लगी
अब बन कर बादल।।
घर वापस जाने की छटपटाहट
करने लगी गड़गड़ाहट
भेजने लगी सन्देश कौंध कौंध कर
मीलो दूर उस थकी हथनी को
सुखी घास चबा चबा टालती
टालती रही छोङे की प्यास
और अब थक चुकी
एक टूक पथराई निगाहो को ।।
तपते हुए बिल में छिलबिलाती
सुखी छिपकली को
तमतमाए हुए
मुर्दा सा बन चुके व्रक्षो को।।
अब बून्द दर बुब्द , बून्द हर बून्द ।
चल पड़ी चमकती , इठलाती
देने एक नया जीवन
देने एक नयी आशा।।
देने एक नयी आशा
उस हथनी और बच्चे को
उस हिरणी और छोने को
कंकाल बनी छिपकली को
और अब हर चुके वृक्षों को
बून्द हर बून्द, बून्द दर बून्द
चल पड़ी चमकती इठलाती
धोने उस मैले आसमा को
फिर शुरू करने वही चक्र
जीवन चक्र
साल दर साल
साल हर साल
वही जीवन चक्र।

Created with Mobirise website maker